परिचय
हमारे धर्म शास्त्रों में 108 उपनिषदों का उल्लेख मिलता है। इनमें से एक महत्वपूर्ण उपनिषद है गर्भ उपनिषद, जिसे महर्षि पिप्पलाद मुनि ने रचा था। यह उपनिषद छोटा होते हुए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें गर्भ में भ्रूण के विकास से लेकर जन्म तक की विस्तृत व्याख्या की गई है।
गर्भ में भ्रूण की स्थिति
गर्भ उपनिषद में यह वर्णित है कि शिशु के शरीर में रस, धातु, वात, पित्त और कफ का संतुलन कैसे होता है। प्राचीन समय में जब कोई वैज्ञानिक उपकरण नहीं थे, तब भी पिप्पलाद मुनि ने इस विषय में जो जानकारी दी थी, वह आज वैज्ञानिक रूप से भी सही साबित हो रही है।
शरीर की रचना
पंचतत्व से बना शरीर
मनुष्य का शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है:
- पृथ्वी – ठोस पदार्थ
- जल – तरल पदार्थ
- अग्नि – शरीर की ऊष्मा
- वायु – गति उत्पन्न करने वाला तत्व
- आकाश – शरीर के भीतर की गुहाएं
पंचतत्वों की भूमिकाएं
- पृथ्वी – शरीर को स्थिरता देती है।
- जल – शरीर के ऊतकों को जोड़ता है।
- अग्नि – शरीर में ऊर्जा प्रदान करती है।
- वायु – गति उत्पन्न करती है।
- आकाश – शरीर के अंदर स्थान प्रदान करता है।
शरीर की इंद्रियां
पांच ज्ञानेंद्रियां (बाहरी दुनिया को समझने के लिए)
- आंखें – देखने के लिए
- कान – सुनने के लिए
- नाक – सूंघने के लिए
- जीभ – स्वाद के लिए
- त्वचा – स्पर्श के लिए
पांच कर्मेंद्रियां (कार्य करने के लिए)
- मुख – बोलने के लिए
- हाथ – पकड़ने और उठाने के लिए
- पैर – चलने के लिए
- गुदा – मल त्याग के लिए
- जननांग – संतान उत्पत्ति के लिए
चार आंतरिक अंग (अंतःकरण)
- बुद्धि – समझ और निर्णय के लिए
- मन – सोचने और कल्पना करने के लिए
- चित्त – स्मरणशक्ति के लिए
- अहंकार – आत्मबोध के लिए
गर्भ में भ्रूण का विकास
- पहली रात – भ्रूण तरल रूप में होता है।
- सातवें दिन – यह बुलबुले के समान बन जाता है।
- पंद्रहवें दिन – गोल आकार धारण कर लेता है।
- एक महीने में – ठोस बन जाता है।
- दो महीने में – सिर का निर्माण होता है।
- तीन महीने में – पैर बनने लगते हैं।
- चार महीने में – पेट और टखने विकसित होते हैं।
- पांच महीने में – मेरुदंड और पीठ बनती है।
- छह महीने में – चेहरा, आंख, कान, नाक का निर्माण होता है।
- सात महीने में – जीवात्मा शरीर में प्रवेश करती है।
- आठ महीने में – सभी अंग पूर्ण हो जाते हैं।
बच्चे के लिंग निर्धारण का सिद्धांत
- यदि वीर्य अधिक शक्तिशाली हो तो पुत्र का जन्म होता है।
- यदि शोणित (अंडाणु) अधिक शक्तिशाली हो तो पुत्री का जन्म होता है।
- यदि दोनों समान हों तो नपुंसक संतान जन्म लेती है।
जुड़वां बच्चों का जन्म
- यदि शुक्राणु या अंडाणु विभाजित होते हैं, तो जुड़वां संतान जन्म लेती है।
- यदि दोनों विभाजित होते हैं, तो भिन्न लिंग के जुड़वां जन्म लेते हैं।
जन्म से पहले आत्मा की स्थिति
भ्रूण गर्भ में रहते हुए सोचता है:
- मैं 84 लाख योनियों में जन्म ले चुका हूँ।
- मैं जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना चाहता हूँ।
- जब मैं जन्म लूंगा, तो मैं ईश्वर की शरण में जाऊंगा।
परंतु जन्म होते ही नवजात शिशु यह सब भूल जाता है, क्योंकि वैष्णवी वायु उसे उसके पूर्वजन्म की स्मृतियां मिटा देती है।
शरीर की त्रिदोष प्रणाली
- वात – शरीर में गति और संतुलन बनाता है।
- पित्त – पाचन और बुद्धि को प्रभावित करता है।
- कफ – शरीर को स्थिरता और पोषण देता है।
तीन प्रकार की अग्नि
- ज्ञानाग्नि – मानसिक प्रक्रियाओं के लिए
- दर्शनाग्नि – संवेदी अंगों की शक्ति के लिए
- कोष्ठाग्नि – भोजन पचाने के लिए
शरीर की संरचना
- खोपड़ी – 4 हड्डियों से बनी होती है।
- दांत – प्रत्येक पंक्ति में 16 दांत होते हैं।
- नाड़ियां – 72 प्रकार की नाड़ियां होती हैं।
- हृदय – 192 ग्राम (8 पल) का होता है।
- शरीर में वीर्य – 192 ग्राम (एक कुडव) होता है।
निष्कर्ष
गर्भ उपनिषद हमें यह सिखाता है कि हमारा शरीर पंचतत्वों से मिलकर बना है और त्रिदोष प्रणाली पर आधारित है। भ्रूण का विकास गर्भ में विभिन्न चरणों में होता है, और आत्मा पूर्व जन्मों के कर्मों का स्मरण भी करती है। यह उपनिषद न केवल आध्यात्मिक बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।