|| श्री सिद्धकुञ्जिकास्तोत्रम् ||

|| श्री सिद्धकुञ्जिकास्तोत्रम् | “देवी माहात्म्य” के अंतर्गत परम कल्याणकारी स्तोत्र है। यह स्तोत्र रुद्रयामल तंत्र के गौरी तंत्र भाग से लिया गया है। सिद्धकुंजिका स्तोत्र का पाठ पूरी दुर्गा सप्तशती के पाठ के बराबर है। इस स्तोत्र के मूल मन्त्र नवाक्षरी मंत्र ( ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ) के साथ प्रारम्भ होते है। कुंजिका का अर्थ है चाबी, अर्थात कुंजिका स्तोत्र दुर्गा सप्तशती की शक्ति को जागृत करता है जो महेश्वर शिव के द्वारा गुप्त, कर दी गयी है। इस स्तोत्र के पाठ के उपरान्त किसी और जप या पूजा की आवश्यकता नहीं होती, कुंजिका स्तोत्र के पाठ मात्र से सभी जाप सिद्ध हो जाते है। कुंजिका स्तोत्र में आए बीजों (बीज मन्त्रो) का अर्थ जानना न संभव है और न ही अतिआवश्यक अर्थात केवल जप पर्याप्त है। सिद्ध कुंजिका स्तोत्र इस प्रकार है:- || श्री सिद्ध कुंजिका स्तोत्र पाठ || विनियोग :- ॐ अस्य श्री कुन्जिका स्त्रोत्र मंत्रस्य सदाशिव ऋषि: । अनुष्टुपूछंदः । श्रीत्रिगुणात्मिका देवता । ॐ ऐं बीजं । ॐ ह्रीं शक्ति: । ॐ क्लीं कीलकं । मम सर्वाभीष्टसिध्यर्थे जपे विनयोग: || || ऋष्यादि न्यास || श्री सदाशिव ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे । त्रिगुणात्मक देवतायै नमः हृदि । ऐं बीजं नमः नाभौ । ह्रीं शक्तयो नमः पादौ । क्लीं कीलकं नमः सर्वांगे । सर्वाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः नमः अंजलौ। || करन्यास || ऐं अंगुष्ठाभ्यां नमः । ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा । क्लीं मध्यमाभ्यां वषट । चामुण्डायै अनामिकाभ्यां हुं । विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां वौषट । ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकर प्रष्ठाभ्यां फट । || हृदयादिन्यास || ऐं हृदयाय नमः । ह्रीं शिरसे स्वाहा । क्लीं शिखायै वषट । चामुण्डायै कवचाय हुं । विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट । ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकरप्रष्ठाभ्यां फट । || ध्यान || सिंहवाहिन्यै त्रिगुणात्मिका चामुंडा I रक्तनेत्री, रक्तप्रिया, रक्तपुष्पमालाधारिणी II लालवस्त्र भूषिता रक्तनेत्रा मधुपात्रधारणी I मेघगर्जिनि अट्टटाहसिनी दानवकुलघातिनी II दासरक्षिणी रणप्रिया खेटक खड़गधारिणी I कल्याणी जगतजननी देवी भव-भयहारिणी II II श्री सिद्ध कुंजिका स्तोत्र II शिव उवाच, शिव जी बोले :- शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम्। येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत् ।।१।। अर्थ :- देवी !सुनो। मैं उत्तम कुंजिका स्तोत्र का उपदेश करूँगा, जिस मन्त्र के प्रभाव से देवी का जप ( पाठ ) सफल होता है ।।१।। न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्। न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम् ।।२।। अर्थ :- कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त, ध्यान, न्यास यहाँ तक कि अर्चन भी आवश्यक नहीं है ।।२।। कुञ्जिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्। अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम् ।।३।। अर्थ :- केवल कुंजिका के पाठ से दुर्गापाठ का फल प्राप्त हो जाता है। ( यह कुंजिका ) अत्यंत गुप्त और देवों के लिए भी दुर्लभ है ।।३।। गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति। मारणं मोहनं वश्यं स्तंभोच्चाटनादिकम। पाठमात्रेण संसिध्येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ।।४।। अर्थ :- हे पार्वती ! स्वयोनि की भांति प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिए। यह उत्तम कुंजिकास्तोत्र केवल पाठ के द्वारा मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन और उच्चाटन आदि ( अभिचारिक ) उद्देश्यों को सिद्ध करता है ।।४।। || अथ मंत्रः || ” ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ” ।। ( मंत्र में आये बीजों का अर्थ जानना न संभव है, न आवश्यक और न ही वांछनीय, केवल जप पर्याप्त है। ) || इतिमन्त्रः || नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि। नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि ।।१।। अर्थ :- हे रुद्ररूपिणी ! तुम्हे नमस्कार। हे मधु दैत्य को मारने वाली ! तुम्हे नमस्कार है। कैटभविनाशिनी को नमस्कार। महिषासुर को मारने वाली देवी ! तुम्हे नमस्कार है ।।१।। नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि । जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।।२।। अर्थ :- शुम्भ का हनन करने वाली और निशुम्भ को मारने वाली ! तुम्हे नमस्कार है I हे महादेवी ! मेरे जप को जाग्रत और सिद्ध करो। ।।२।। ऐंकारी सृष्टिरुपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका । क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोस्तु ते।।३।। अर्थ :- ‘ऐंकार’ के रूप में सृष्टिरूपिणी, ‘ह्रीं’ के रूप में सृष्टि का पालन करने वाली I क्लीं के रूप में कामरूपिणी ( तथा अखिल ब्रह्माण्ड ) की बीजरूपिणी देवी ! तुम्हे नमस्कार है ।।३।। चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी । विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि ।।४।। अर्थ :- चामुंडा के रूप में तुम चण्डविनाशिनी और ‘यैकार’ के रूप में वर देने वाली हो ‘विच्चे’ रूप में तुम नित्य ही अभय देती हो। ( इस प्रकार ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ) तुम इस मन्त्र का स्वरुप हो ।।४।। धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी। क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु ।।५।। अर्थ :- ‘धां धीं धूं’ के रूप में धूर्जटी ( शिव ) की तुम पत्नी हो। ‘वां वीं वूं’ के रूप में तुम वाणी की अधीश्वरी हो। ‘क्रां क्रीं क्रूं’ के रूप में कालिकादेवी, ‘शां शीं शूं’ के रूप में मेरा कल्याण करो।।५।। हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी। भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः ।।६।। अर्थ :- ‘हुं हुं हुंकार’ स्वरूपिणी, ‘जं जं जं’ जम्भनादिनी, ‘भ्रां भ्रीं भ्रूं’ के रूप में हे कल्याणकारिणी भैरवी भवानी ! तुम्हे बार बार प्रणाम ।।६।। अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा।।७।। अर्थ :- ‘अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं’ इन सबको तोड़ो और दीप्त करो, करो स्वाहा ।।७।। पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा । सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिं कुरुष्व मे।।८।। अर्थ :- ‘पां पीं पूं’ के रूप में तुम पार्वती पूर्णा हो। ‘खां खीं खूं’ के रूप में तुम खेचरी ( आकाशचारिणी ) अथवा खेचरी मुद्रा हो I ‘सां सीं सूं’ स्वरूपिणी सप्तशती देवी के मन्त्र को मेरे लिए सिद्ध करो ।।८।। || फलश्रुती || इदं तु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे। अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति ।। यस्तु कुंजिकया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत्। न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ।। अर्थ :- यह सिद्धकुंजिका स्तोत्र मन्त्र को जगाने के लिए है। इसे भक्तिहीन पुरुष को नहीं देना चाहिए। हे पार्वती ! इस मन्त्र को गुप्त रखो। हे देवी ! जो बिना कुंजिका के सप्तशती का पाठ करता…

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